दो नावों पर पाकिस्तान अंतत: पाकिस्तानी सेना को तालिबान आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए विवश होना पड़ा। तालिबान इस्लामाबाद से केवल साठ मील दूर रह गए थे। स्वात घाटी समझौता तालिबानों को शांत करने की उम्मीद में किया गया था, किंतु एक सप्ताह के अंदर तालिबान बुनेर तक बढ़ आए। ऐसा कैसे संभव हुआ? साधन-शक्ति संपन्न पाकिस्तानी सेना और भरपूर अमेरिकी समर्थन के बावजूद कैसे तालिबान इतना आगे बढ़ते रहे? क्या यह पाकिस्तान की राजनीतिक विफलता है? इसका उत्तर केवल तात्कालिक घटनाक्रम से नहीं मिल सकता। उस स्थाई तनाव को समझना जरूरी है जिससे पाकिस्तान अपने जन्म से ही ग्रस्त है। मुस्लिम लीग और जिन्ना ने इस्लाम के नाम पर जिहाद छेड़ कर पाकिस्तान बनाया था, किंतु फिर वे आधुनिक विकास और भौतिक संपन्नता की ओर देखने लगे। वस्तुत: पाकिस्तान की स्थिति शुरू से ही दो नावों पर सवार जैसी रही है-इस्लाम और आधुनिक उन्नति के मूल्य। यहीं से वह असाध्य अंतर्विरोध पैदा हुआ जिसने उसे कभी चैन से नहीं रहने दिया। संकट का मूल उस दो-तरफा प्रवृति में है। वह इस्लाम को सर्वोपरि देखना चाहता है और आधुनिक भी बनना चाहता है। इसीलिए वहां राष्ट्रीय संविधान की स्थिति आरंभ से ही दयनीय रही। नौ वर्ष तक वहां कोई संविधान ही नहीं बन सका। पहला संविधान 1956 में बना, जो बस दो वर्ष जिंदा रहा। दूसरा संविधान 1962 में बना, जो छह वर्ष चला। तीसरा 1973 में, जिसे जिया-उल हक से लेकर परवेज मुशर्रफ तक कई तानाशाह तोड़-मरोड़ चुके हैं। यह सभी संविधान इस्लाम और आधुनिकता के बीच के तनाव से ग्रस्त रहे। हर बार इस्लाम को कानून का सर्वोच्च स्त्रोत माना गया। पहली धारा पाकिस्तान को इस्लामी गणतंत्र बताती है। वहां कोई गैर-मुस्लिम राष्ट्रपति नहीं बन सकता। विधायिका के बनाए सभी कानून इस्लाम अनुरूप हों, इसकी निगरानी के लिए वहां सदैव एक इस्लामिक काउंसिल बनी रही है। दूसरी धारा इस्लाम को राज्य-धर्म घोषित करती है। संविधान का तीसरा अध्याय संघीय शरीयत अदालत का प्रावधान करता है। संविधान के नौवें भाग इस्लामी प्रावधान के अनुसार अंतत: सभी कानूनों का इस्लामीकरण किया जाएगा। दूसरे शब्दों में, अभी जो गैर-इस्लामी नियम-कायदे हैं उन्हें भी अंतत: इस्लामी बनाया जाएगा। इस प्रकार तालिबान वहां जो करना चाह रहे हैं वह पाकिस्तानी संविधान का ही निर्देश है! हाल में इस्लामाबाद की प्रसिद्ध लाल मस्जिद के मौलाना अब्दुल अजीज ने युवाओं को धमकाया था कि जो लोग नाच-गाना पसंद करते हैं, वे भारत चले जाएं, क्योंकि यदि पाकिस्तान में रहना है तो शरीयत या शहादत में से एक चुनना पड़ेगा। अत: यदि यही सब तालिबान आकर करें तो यह उनके लिए बुरा क्या है! वास्तव में जिस असहिष्णु आधार पर पाकिस्तान बना था, वही उसकी नियति बन गई। तर्क वही रहा-जो विवेकसंगत है वह नहीं, बल्कि जो इस्लाम का हुक्म है वह हो। इस्लाम के हुक्म यानी शरीयत की कोई सर्वमान्य व्याख्या आज तक कहीं नहीं बनी। इस्लामी ग्रंथों और परंपरा में ऐसी कोई राजनीतिक व्यवस्था की रूपरेखा भी नहीं जो आज सहजता से चल सके। अत: जब तक कोई पाकिस्तानी तानाशाह, शासक या राजनीतिक दल ताकतवर है तब तक तो ठीक, किंतु जैसे ही राजनीतिक पटल लोकतांत्रिक होता है तो तरह-तरह की इस्लामी जमातें अपनी धार तेज करने लगती हैं। अभी वही हो रहा है। तालिबानों को पाकिस्तानी उलेमा के सशक्त हिस्से का समर्थन है। सभी पाकिस्तानी तानाशाहों, शासकों ने अपनी मनमानियों के लिए भी इस्लाम का ही हवाला दिया है। सुप्रीम कोर्ट और सेना ने भी। सबने शरीयत के इस कथन का उपयोग किया कि जरूरत पड़ने पर वर्जित काम भी किए जा सकते हैं। इसीलिए पाकिस्तानी सेना का चरित्र भी अधिकाधिक इस्लामी होता गया। जिन्ना ने वहां की सेना को मूल मंत्र दिया था-एकता, मजहबी विश्वास, अनुशासन। इसे जनरल जिया ने बदल कर मजहबी विश्वास, मजहबी भावना, जिहाद कर दिया। अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप के बाद पाकिस्तानी सेना के अंतरराष्ट्रीय इस्लामी उग्रवादी गुटों के साथ गहरे कारोबारी संबंध स्थापित हुए। तालिबानों की ताकत वृद्धि इन तमाम कारणों से हुई। वस्तुत: पाकिस्तान का तालिबानीकरण कोई अजूबा नहीं है। डा. अंबेडकर ने इस्लाम को एक क्लोज कारपोरेशन बताया था। पाकिस्तान में दिखने वाले एकाध उदारवादी बुद्धिजीवियों की कोई अधिक पूछ नहीं। उनका अस्तित्व भी इसलिए बना हुआ है कि उनके निकट-संबंधी सेना में बड़े पदों पर हैं। पाकिस्तान ने जो बोया है वह उसी की फसल काट रहा है।
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